मुख्यमंत्री जी, अपनों से बचो! मुख्यमंत्री तो विवेकशील हैं, लेकिन कुछ सलाहकार जुटे हैं उनकी लुटिया डुबोने में

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मुख्यमंत्री तो विवेकशील हैं, लेकिन कुछ सलाहकार जुटे हैं उनकी लुटिया डुबोने में

MUNISH KOUNDAL
CHIEF EDITOR

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू को जनता ने एक उम्मीद और भरोसे के साथ सत्ता सौंपी थी। उनके शुरुआती कदमों में ईमानदारी, संवेदनशीलता और जनहित के प्रति प्रतिबद्धता स्पष्ट झलकती थी। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हाल के दिनों में सरकार की कुछ नीतियों ने जनता के बीच भ्रम, आक्रोश और असंतोष को जन्म दिया है — और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुख्यमंत्री को घेरकर बैठे कुछ ‘अति-ज्ञानी’ सलाहकार माने जा रहे हैं।

बिजली और पानी के बिलों में भारी वृद्धि, न्यूनतम बस किराया ₹10 करना, और अब सरकारी अस्पतालों में पर्ची के लिए ₹10 वसूलना — ये सारे निर्णय उस वर्ग की रीढ़ तोड़ रहे हैं, जिसने कांग्रेस को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जिस गरीब और मध्यम वर्ग को राहत देने का वादा किया गया था, वही वर्ग आज खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है।

इससे पहले भी ‘टॉयलेट टैक्स’ लगाने की अफवाहों ने कांग्रेस को गंभीर नुकसान पहुँचाया था। उस समय पार्टी और सरकार की चुप्पी ने भाजपा को भरपूर अवसर दे दिया, और इसका खामियाजा कुछ राज्यों में सत्ता गंवाकर भुगतना पड़ा। अब वही गलती दोहराई जा रही है — मुद्दा अलग है, पर प्रतिक्रिया और तैयारी वही ढीली है।

स्वास्थ्य सेवा में ₹10 पर्ची शुल्क न केवल सामाजिक दृष्टिकोण से असंवेदनशील है, बल्कि प्रशासनिक रूप से भी अनुपयोगी है। अस्पतालों में स्टाफ की पहले ही कमी है, भीड़ अधिक है, और अब इस नए तंत्र से केवल अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और जन असंतोष को बढ़ावा मिलेगा। यह न लाभदायक है, न व्यावहारिक।

मुख्यमंत्री सुक्खू की छवि एक गंभीर, संवेदनशील और मेहनती नेता की है। परन्तु यही छवि तब धूमिल हो जाती है जब वे अपने आस-पास बैठे कुछ ‘राजनीतिक और प्रशासनिक कच्चे’ सलाहकारों की बातों में आकर ऐसे निर्णय लेते हैं, जिनका सीधा नुकसान जनता और पार्टी दोनों को होता है। इससे न केवल कांग्रेस संगठन और उसकी नीतियों की साख को धक्का लगता है, बल्कि विपक्ष को बैठे-बिठाए हथियार भी मिल जाते हैं।

मुख्यमंत्री को अब आत्ममंथन करना होगा। सलाहकारों की मंडली में छंटनी की ज़रूरत है। ऐसे लोग जो ज़मीनी हकीकत से कटे हैं, जिनकी नज़र सिर्फ कागज़ों और सत्ता की चापलूसी तक सीमित है, उन्हें निर्णय प्रक्रिया से दूर रखना होगा। क्योंकि सत्ता में बने रहना जितना कठिन है, उससे कहीं कठिन है — जनता के विश्वास को बनाए रखना।

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